समय
उन घटनाओं का साक्षी व्यक्ति केवल घटना मात्र को ठीक करने की अपने हिसाब से कोशिश मात्र कर सकता है किंतु नतीजों पर शायद ही तनिक भी असर पड़े ।।
हर बार ना चाहते हुए भी कुछ घटनाएं जीवन में वही सब दोहराती है जिस दर्द से इंसान गुजर चुका होता है उसी दर्द का जब फिर से एहसाह होता है तब इंसान बस मन को कुंठित करने के सिवा कुछ नहीं कर सकता है।
बस सिर्फ फ़र्क इतना होता है एक बार दर्द में जीने की आदत बन चुकी होती है तो आगे फिर से दर्द के डर से बस संभलना सिख जाता है अकेले जीने की अकेले ही दर्द को पीने की कला में पारंगत हो जाता है।
अब बस मिथ्या सी बातें ही लगती है सब , एक उम्मीद जो होती है "जो हुआ अच्छे के लिए हुआ" "जो होगा अच्छा ही होगा " उसमें भी इंसान इतना तो सिख ही जाता "जो अभी है वही सब से बेहतर हालत है आगे जो होगा इस से भी ज्यादा होगा "
खैर समय एक ही जगह स्थिर रहता है हम ही समय के गर्त में गोते लगाते हुए तैरते है जब तक ये जीवन होता है , जीवन के ना होने से पहले भी समय वही था जीवन के पर्यंत भी समय वहीं स्थिर रहेगा ।। वही सुबह सूरज का उगना , शाम को ढलना, रात का होना , चांद का अपने आकार को दीर्घ , लघु करना, हर बार मौसम का बदलना कालांतर से यूंही चला आ रहा है , अर्थात समय गतिमान है नहीं समय अपने जगह पर है बस गतिमान इस पृथ्वी की तरह हम समय रेखा पर गतिमान है जैसे हमें चांद तारे सूरज गतिमान लगते है उसी प्रकार समय गतिमान है बस इसी समय की पुनरावृति तय करती है की हम एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने में कितना हिस्सा गंवाते है ।
इंसान ही इस समय की वृताकार रेखा पर सफर तय करता है जो अंतिम दिन तक तय होता है।
शुब्बी
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