एक सिख मेरी गीता से
महाभारत के युद्ध में जहां एक ओर भीष्मपितामह , गुरु द्रोणाचार्य , कृपाचार्य ,कर्ण , कूटनीतिक सकुनि दुर्योधन , श्रीकृष्ण की सेना और ना जाने देश के कितने महारथी थे
दूसरी ओऱ पांडवो के पास अर्जुन ,भीम के जैसे योद्धा तो थे लेकिन कौरवों की तुलना में सेना भी कम थी एक ओर महारथी दूसरी तरफ अभिमन्यु जैसा बालक था । श्री कृष्ण ने अस्त्र और शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा की थी ।।
कौरव सेना में पांडवो के हितैषी तो थे लेकिन वो विवश थे ।।
पाण्डव अपने आत्मसम्मान के लिये लड़ रहे थे ।
अगर आप अपने आत्मसम्मान के लिये नहीं लड़ सकते तो कल आप किसी पर भी सवाल नहीं कर सकते हैं जहां तक सम्भव हो आत्मसम्मान के लिए सस्त्र उठाने की बात नही होनी चाहिये लेकिन आपको आत्मसमर्पण भी नहीं करना चाहिये।।
आप जीते या हारे
जीतेंगे तो समाज मे परिवर्तन का अवसर प्राप्त होगा।
हारने पर ज्ञान के साथ अपनों का भी अहसास होगा।
जब अर्जुन युद्ध के समय अपनो के विरुद्ध संघर्ष नहीं करना चाहते थे तब श्रीकृष्ण ने गीता के ज्ञान के द्वारा अर्जुन को आत्मसम्मान , धर्म , समाज के लिये लड़ने की प्रेरणा दी तब अर्जुन ने युद्ध किया ।।
जरूर पांडवो ने बहुत कुछ खोया समाज ने बहुत कुछ गवाया , अपने अपनों के विरुद्ध खड़े थे हानि तो हुई किन्तु सत्ता परिवर्तन के साथ समाज परिवर्तन भी हुआ ।।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थात
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।।
कर्म करना हमारे हाथ में है हम कर्म कर सकतें हैं बाकी सब प्रभु के हाथों में हैं
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