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कभी लिखूंगा ना तुम्हें

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हां लिखूंगा ना,  कभी दास्तां अपनी, जिसमें तुम और बस तुम हो ।। मैं हर पल रहूं , साथ तेरे साया बनकर पर , उसमें  मैं - मैं ना होकर, उसमें  मैं तुम रहूं,  कहां मैं सोचूं तुम्हें चांद की उन परिधियों से , कहां धरा को अस्तित्व से जुदा कर सकूं। शांत गुमशुदा या मौन होना बस एक भ्रम मात्र है, तेरे आलिंगन से बढ़ कर कुछ यथार्थ नहीं।। प्रेम की प्रकाष्ठा के गहरे सागर में गोते लगाना हो या फिर मदमस्त पवन के वेग के अनुकूल बहना । तुम से ही तो सब है आदि अनंत के व्योम में शून्य के आधार सा।।। मुझे अबोध से मुझे बोध होने तक , मेरे उग्र व्यवहार से मेरे मूक होने तक , मेरे महत्वाकांक्षी से मेरे विमुख होने तक , मेरे लालची से संतोषी होने तक । इस जीवन के हर हिस्से हर किस्से में तुम सदैव रहोगी , जिस तरह किसी पौधे के जीवन में बीज का महत्व होता है किंतु उस बीज से पौधे या पेड़ के रूप में विकसित होने के लिए वातावरण के यथार्थ तत्वों के समायोजन में मृदा , जल और वायु के अतरिक्त सूर्य के प्रकाश , जलवायु के अनुकूल परिस्थितियों के बहुमूल्य योगदान के अदृश्य होने की हम तुलना नहीं करते है । उसी प्...